विकट संकष्टी चतुर्थी व्रत कथा || Vaibhav Vyas

विकट संकष्टी चतुर्थी व्रत कथा 


विकट संकष्टी चतुर्थी व्रत कथा कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को संकष्टी चतुर्थी व्रत किया जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस दिन विधिवत पूजा अर्चना करने से विघ्नहर्ता गणेश सभी तरह के विघ्न को दूर कर देते हैं और घर परिवार में सुख-शांति बनी रहती है। किसी भी माह की चतुर्थी भगवान गणेश को समर्पित होती है लेकिन वैशाख संकष्टी चतुर्थी का विशेष महत्व है। मान्यता है कि इस दिन व्रत करने और कथा सुनने से मात्र से ही भगवान गणेश का आशीर्वाद बना रहता है और सुख-शांति और समृद्धि में अच्छी वृद्धि होती है। वैशाख संकष्टी चतुर्थी में वक्रतुंड गणेश की पूजा की जाती है। गणेशजी के सभी स्वरूपों में वक्रतुंड गणेश जल्दी कृपा करते हैं और भक्तों पर अपना आशीर्वाद बनाए रखते हैं। इस दिन कमलगट्टे के हलवे का भगवान गणेश को भोग लगाना चाहिए और सेवन करना चाहिए। व्रत में 108 बार इस मंत्र का जप करें। वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा। संकष्टी गणेश चतुर्थी व्रत कथा पहले हाथ में कुछ अक्षत ले लें। भगवान कृष्ण युधिष्ठिर को इस व्रत की महानता के बारे बताते हुए कहते हैं कि प्राचीन काल में रंतिदेव नामक प्रतापी राजा थे। राजा की मित्रता यम, कुबेर और इन्द्रादि देवों से थी। उनके ही राज्य में धर्मकेतु नामक ज्ञानी ब्राह्मण रहते थे। उनकी दो पत्नियां थीं एक सुशीला और दूसरी चंचला। सुशीला कोई ना कई व्रत करती थी, जिससे उसका शरीर दुर्बल हो गया। वहीं चंचला कोई व्रत नहीं करती थी और भरपेट भोजन करती थी। कुछ दिनों बाद सुशीला को शुभ लक्षणों वाली एक कन्या हुई और चंचल को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। कन्या की शुभता देखकर चंचला सुशीला को ताना देने लगी। अरे सुशीला! तुमने इतने व्रत और उपवास किए हैं, जिसकी वजह से तुम्हारा शरीर जर्जर हो गया, फिर भी एक कृशकाय कन्या को जन्म दिया। मुझे देख, मैं कभी व्रतादि के चक्कर में न पड़कर हष्ट-पुष्ट बनी हुई हूं और वैसे ही बालक को भी जन्म दिया है। चंचला की बातें सुशीला के हृदय में चुभने लगीं। चतुर्थी के दिन सुशीला ने पूरी भक्ति भाव के साथ संकटनाशक गणेश चतुर्थी का व्रत किया। व्रत से प्रसन्न होकर गणेशजी ने दर्शन दिए। गणेशजी ने आशीर्वाद देते हुए कहा कि हे सुशीला तेरी कन्या के मुख से मोती और मूंगा प्रवाहित होती रहेंगे और तुझे वेद शास्त्र वेत्ता एक पुत्र भी होगा। वरदान को देने के बाद गणेशजी अंतध्र्यान हो गए। वरदान के बाद कन्या के मुंह से मोती और मूंगा झडऩे लगे और कुछ दिनों बाद एक पुत्र की प्राप्ति भी हुई। उसके कुछ दिनों बाद ही धर्मकेतु का स्वर्गवास हो गया और उनकी मृत्यु के उपरांत चंचला घर का पूरा धन लेकर दूसरे घर में जाकर रहने लगी लेकिन सुशीला पति के घर में रहकर ही पुत्र और पुत्री का पालन पोषण करने लगी। कन्या की वजह से सुशीला के पास काफी धन एकत्रित हो गया। इस कारण चंचला सुशीला और उसके परिवार से ईष्र्या करने लगी। एक दिन हत्या के उद्देश्य से चंचला ने सुशीला की कन्या को कुएं में धकेल दिया। कुंए में गणेशजी ने सुशीला की कन्या की रक्षा की और वापस माता के पास भेज दिया। कन्या को जीवित देखकर चंचला का मन उद्विग्न हो उठा। वह सोचने लगी कि जिसकी रक्षा स्वयं ईश्वर कर रहे हो, उसे कौन मार सकता है? इधर सुशीला अपनी पुत्री को पुन: प्राप्त कर प्रसन्न हो गई और गणेश भगवान को धन्यवाद कहा और प्रार्थना की। चंचला सुशीला की कन्या के चरणों में नतमस्तक हो गई और अपने किए की माफी मांगने लगी। चंचला ने सुशीला से कहा कि सुशीला तुम बहुत दयावान हो और दोनों कुलों का उद्धार करें। जिसकी रक्षा स्वयं भगवान करते हों, उसका मनुष्य क्या बिगाड़ सकता है। इसके बाद चंचला ने भी वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि का व्रत किया। गणेशजी की कृपा से दोनों परिवारों के बीच सब सही हो गया। जिस पर गणेशजी की कृपा होती है, उसके शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। भगवान गणेश ने जिस प्रकार सुशीला की मदद की, उसी तरह वे सभी की मदद करें। जय गणेश भगवान।

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