दक्षिणा का महत्व
दक्षिणा का महत्व ब्राह्मणों की दक्षिणा हवन की पूर्णाहुति करके एक मुहूर्त ( 24 ) मिनट के अन्दर दे देनी चाहिये, अन्यथा मुहूर्त बीतने पर 100 गुना बढ जाती है, और तीन रात बीतने पर एक हजार, सप्ताह बाद दो हजार, महीने बाद एक लाख और संवत्सर बीतने पर तीन करोड़ गुना यजमान को देनी होती है यदि नहीं दे तो उसके बाद उस यजमान का कर्म निष्फल हो जाता है , और उसे ब्रह्महत्या लग जाती है, उसके हाथ से किये जाने वाला हव्य - कव्य देवता और पितर कभी प्राप्त नहीं करते हैं। इसलिए ब्राह्मणों की दक्षिणा जितनी जल्दी हो देनी चाहिये। शास्त्रों में आए हुए प्रमाण के अनुसार-
मुहूर्ते समतीते तु, भवेच्छतगुणा च सा।
त्रिरात्रे तद्दशगुणा, सप्ताहे द्विगुणा मता।।
मासे लक्षगुणा प्रोक्ता, ब्राह्मणानां च वर्धते।
संवत्सर व्यतीते तु, त्रिकोटिगुणा भवेत्।।
कम्र्मं तद्यजमानानां , सर्वञ्च निष्फलं भवेत्।
सब्रह्मस्वापहारी च, न कर्मार्होशुचिर्नर:।।
गीता में स्वयं भगवान ने कहा-
विधिहीनमसृष्टान्नं, मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं, तामसं परिचक्षते।।
बिना सही विधि से बनाया भोजन जैसे परिणाम में नुकसान करता है, वैसे ही ब्राह्मण के बोले गये मन्त्र दक्षिणा न देने पर नुकसान करते हैं। शास्त्र कहते हैं लोहे के चने या टुकड़े भी व्यक्ति पचा सकता है, परन्तु ब्राह्मणों के धन को नहीं पचा सकता है। किसी भी उपाय से ब्राह्मणों का धन लेने वाला हमेशा दु:ख ही पाता है। शास्त्रों में वर्णित वर्णनानुसार- महाभारत का युद्ध चल रहा था, युद्ध के मैदान में सियार आदि हिंसक जीव योद्धाओं के गरम -2 खून को पी रहे थे, इतने में ही धृष्टद्युम्न ने तलवार से पुत्रशोक से दु:खी निशस्त्र द्रोणाचार्य की गर्दन काट दी। तब द्रोणाचार्य के गरम -2 खून को पीने के लिए सियारिन दौडती है, तो सियार अपनी सियारिन से कहता है- प्रिये, विप्ररक्तोस्यं गलद्दगलद्दहति। यह ब्राह्मण का खून है इसे मत पीना, यह शरीर को गला- गला कर नष्ट कर देगा। तब उस सियारिन ने भी ब्राह्मण द्रोणाचार्य का रक्तपान नहीं किया। ऋषि - मुनियों का कर के रुप में खून लेने पर ही रावण के कुल का संहार हो गया। इसलिए जीवन में कभी भी ब्राह्मणों के द्रव्य का अपहरण किसी भी रुप में नहीं करना चाहिये। वित्तशा_्यं न कुर्वीत, सति द्रव्ये फलप्रदम। अनुष्ठान, पाठ - पूजन जब भी करवायें ब्राह्मणों को उचित दक्षिणा देनी चाहिये और दक्षिणा के अतिरिक्त उनके आने - जाने का किराया आदि -2 पूछकर अलग से देना चाहिये। उसके बाद विनम्रता से ब्राह्मणों की वचनों द्वारा भी सन्तुष्टि करते हुए आशीर्वाद देना चाहिये, ऐसा करने पर ब्राह्मण मुँह से नहीं बल्कि हृदय से आशीर्वाद देता है, और तब यजमान का कल्याण होता है। यत्र भुंड्क्ते द्विजस्तस्मात् , तत्र भुंड्क्ते हरि: स्वयम्।। जिस घर में इस तरह श्रद्धा से ब्राह्मण भोजन करवाया जाता है, वहाँ ब्राह्मण के रुप में स्वयं भगवान ही भोजन करते हैं।
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