गया में पिण्डदान का विशेष महत्व || Vaibhav Vyas


गया में पिण्डदान का विशेष महत्व 

 गया में पिण्डदान का विशेष महत्व गरुड़ पुराण के अनुसार गया जी जाने के लिए घर से गया जी की ओर बढ़ते हुए कदम पितरों के लिए स्वर्ग की ओर जाने की सीढ़ी बनाते हैं। इसी मान्यता के चलते गया जी में पिण्डदान का महत्व बढ़ जाता है। इसी के चलते मृत व्यक्तियों की आत्मा की शान्ति के लिए गया जी में पिण्डदान सम्पन्न करवाया जाता है। ऐसी भी मान्यता है कि जिस व्यक्ति का पिंडदान यहां (गया जी) में हो जाता है, उसकी आत्मा को निश्चित तौर पर शांति मिलती है। विष्णु पुराण में भी कहा गया है कि गया में श्राद्ध हो जाने से पितरों को इस संसार से मुक्ति मिलती है।  हिंदू धर्म में मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान किया जाता है। पितृपक्ष के दौरान पितरों को तर्पण भी इसीलिए ही दिया जाता है। ताकि उनकी आत्मा को शांति मिले और उनकी गति हो सके। कहते हैं कि एक बार जो व्यक्ति गया जाकर पिंडदान कर देता है। उसे फिर कभी पितृपक्ष के दौरान श्राद्ध या पिंडदान करने की जरूरत नहीं पड़ती है। अधिकतर लोगों की यह चाहत होती है कि मृत्यु के बाद उनका पिंडदान गया में हो जाए। सनातन धर्म में यह मान्यता है कि गया में श्राद्ध करवाने से व्यक्ति की आत्मा को निश्चित तौर पर शांति मिलती है। इसलिए ही इस तीर्थ को बहुत श्रद्धा और विश्वास के साथ गया जी कहा जाता है। गया जी तीर्थ की पौराणिक कथा की मान्यताओं के अनुसार गया भस्मासुर के वंशज गयासुर की देह पर बसा हुआ स्थान है। एक बार की बात है गयासुर दैत्य ने कठोर तप किया। तप से ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर उन से वरदान मांगा कि उसकी देह यानी शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाए। जो कोई भी व्यक्ति उसे देखे वह पापों से मुक्त हो जाए। ब्रह्मा जी ने गयासुर को तथास्तु कहा। इसके बाद लोगों में पाप से मिलने वाले दंड का भय खत्म हो गया। लोग और अधिक पाप करने लगे। जब उनका अंत समय आता था तो वह गयासुर का दर्शन कर लेते थे। जिससे सभी पापों की मुक्ति हो जाती थी। इस समस्या का समाधान ढूंढने के लिए देवताओं ने गयासुर को यज्ञ के लिए पवित्र भूमि दान करने के लिए कहा। गयासुर ने विचार किया कि सबसे पवित्र तो वो स्वयं हैं और गयासुर ने देवताओं को यज्ञ के लिए अपना शरीर दान किया। दान करते हुए गयासुर ने देवताओं से यह वरदान मांगा कि यह स्थान भी पापों से मुक्ति और आत्मा की शांति के लिए जाना जाए। गयासुर धरती पर लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया। गया तीर्थ भी इसलिए पांच कोस में फैला हुआ है। समय के साथ इस स्थान को गया जी पितृ तीर्थ के रूप में जाना जाने लगा। गयासुर के बारे में भी कहा जाता है कि वह भगवान विष्णु के परम भक्त थे। एक बार वह शिकार करने गए तब उन्होंने हरिण को मारने के लिए तीर चलाया लेकिन वह हरिण के बजाए एक ब्राह्मण को जा लगा। तब उस ब्राह्मण ने शाप दिया कि तुम राजा हो लेकिन कार्य तुमने असुरों वाला किया है। ब्राह्मण ने कहा कि मैं तुम्हें शाप देता हूं कि तुम असुर योनि में जन्म लो। शाप मिलते ही राजा का शरीर पांच कोस तक फैल गया। अब राजा गया गयासुर बन गए। लेकिन वह भगवान विष्णु के भक्त थे तो उनके मन में आसुरी प्रवृत्ति हावी नहीं हो पाई और वह अपना राजपाट छोड़कर जंगल चले गए। बाद में राजा ने जंगल में घोर तपस्या कर ब्रह्माजी को प्रसन्न कर उपरोक्त वरदान पाया था। उसने भगवान से यह वरदान भी पाया था कि जो व्यक्ति श्राद्ध कर्म करने में सक्षम नहीं हो और वह केवल इस स्थान पर आकर श्रद्धा से ही कहे कि मेरे पितरेश्वरों की मुक्ति के लिए मैं प्रार्थना करता हूं तब भी उनके पूर्वजों को मुक्ति मिल जाए। यही वजह है कि पौराणिक काल से लेकर आज तक इस स्थान का महात्म्य वैसा का वैसा बना हुआ है।

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