निज स्वरूप को पहचानें तो सुख-दुख नहीं रहते || Vaibhav Vyas


 निज स्वरूप को पहचानें तो सुख-दुख नहीं रहते

आजकल चारों ओर लोग अशान्त और दु:खी दिखाई देते हैं। इसका कारण यथार्थ ज्ञान का अभाव है। विवेक पूर्वक विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि बाहरी परिस्थितियाँ हमें तब तक प्रभावित नहीं कर सकतीं, जब तक हम दृढ़तापूर्वक उनसे अप्रभावित रहने के लिये उद्योगशील रहते हैं। जब हम अपने मन से बाह्य परिस्थितियों को सुखद या दु:खद मान लेते हैं, तभी वे हमें सुखी - दु:खी बनाती हैं। यदि निरन्तर यह भाव बना रहे कि हम स्थूल, सूक्ष्म और कारण - शरीर, इन तीन शरीरों से परे शुद्ध सच्चिदानन्दमय आत्मा हैं, तो किसी भी परिस्थिति में दुख की अनुभूति नहीं हो सकती।

प्रारब्ध - भोग टाला नहीं जा सकता। ज्ञानी भी उसे भोगना है और अज्ञानी भी। अन्तर केवल यह है कि ज्ञानी तो प्रसन्नतापूर्वक अच्छा - बुरा सभी प्रकार का प्रारब्ध भोगता है और अज्ञानी रोते हुये भोगता है। जब यह निश्चित है कि प्रारब्ध अवश्य भोगना पड़ेगा, तब उसे प्रसन्नता के साथ ही क्यों न भोग लिया जाय। दु:ख यथार्थ में है ही नहीं। उसकी तो प्रातिभासिक सत्ता है जो केवल भ्रम के कारण दिखाई देती है। जैसे किसी कमरे में पड़ी हुई रस्सी को अन्धकार में देखने वाला सर्प का अनुमान करके भय से काँपने लगता है, परन्तु जिसने सुर्य के आलोक में उस रस्सी को देखा है वह न तो कम्पित होता है और न व्याकुल। यद्यपि वह उन्हीं लोगों के बीच में है जो रस्सी में सर्प को कल्पना करके भयभीत हो रहे हैं। इसी प्रकार से ज्ञानी भी आपके बीच में रहता है, परन्तु दु:ख उसे विचलित नहीं कर सकते।

विचार कर देखिये कि रज्जु तो सबके लिये समान था, परन्तु जो प्रकाश में उसके यथार्थ स्वारूप को देख चुका था वह अंधेरे में उसका देखकर कम्पित नहीं हुआ। जो उसके स्वरूप को नहीं जानते थे वे हो भ्रम से उसे सर्प मानकर भयभीत और दु:खी हुये। यदि किसी प्रकार उन लोगों का भ्रम दूर हो जाता तो फिर उनके लिये दु:ख का अस्तित्व ही नहीं रहता। इसका निष्कर्ष यही है कि दु:ख का कारण है भ्रम। भ्रम की निवृत्ति हो सकती है, इसीलिये दु:ख की भी निवृत्ति हो सकती है। यदि दु:ख भ्रम - मूलक न होता और पारमार्थिक सत्तावान् होता तो उसकी निवृत्ति विधाता भी नहीं कर सकते थे; क्योंकि सत् वस्तु का अभाव कभी भी नहीं होता।

भ्रम - नाश दो प्रकार से होता है। इसे समझने के लिये उसी रज्जुवत् सर्प के दृष्टांत को ले लीजिये। दीपक लेकर रज्जु के वास्तविक स्वरूप को देख लेने पर उसमें सर्प का भ्रम मिट सकता था। रस्सी से तो कोई भयभीत होता नहीं, केवल सर्प की कल्पना ही भय - कम्प का कारण थी। अत: अधिष्ठान का प्रत्यक्ष ज्ञान होने पर उसका अस्तित्व ही नहीं रहता। भ्रम - नाश का दुसरा उपाय है - जानने वाले की बात पर विश्वास करना। जिसने उस रज्जु को दिन के प्रकाश में ठीक - ठीक समझ लिया है, उसकी बात पर विश्वास करके भी भय को मिटाया जो सकता है।

विवेक, वैराग्य, षट् - सम्पत्ति, मुमुक्षुता इत्यादि साधनों से सम्पन्न होकर ज्ञानी समाधि के द्वारा जगत् और ब्रह्म के यथार्थ स्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करता है। वह जानता है कि आत्म और अनात्म सभी रूपों में एक परमात्मा ही व्याप्त है। अत: जगत् में रहते हुए भी वह द्वन्द्व रहित हो जाता है। समाधि - काल में प्राप्त किये हुये ज्ञान के बल से वह व्यवहार - काल में भी कभी व्यथित नहीं होता ; क्योंकि जहाँ अज्ञानी लोग भय देखते हैं वहाँ भी ज्ञानी ईश्वर को देखता है। चराचर सम्पूर्ण जगत् का एकमात्र अधिष्ठान पर्मात्मा ही है। जैसे सर्प के अधिष्ठान रज्जु को जान लेने पर भय मिट जाता है, उसी प्रकार जगत् के अधिष्ठान परमात्मा को जान लेने पर भय के लिये कहीं स्थान ही नहीं रहता।

साधनहीनता के कारण जो परमात्मा का अपरोक्ष ज्ञान करने में असमर्थ हैं, वे भी यदि शास्त्र और ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरुओं के शब्दों में श्रद्धा और विश्वास करना सीखों तो बहुत अंशों में उनका दु:ख दूर हो जायेगा। जब तक अन्त:करण में भ्रम बना हुआ है, तब तक लाख उपाय करने पर भी दु:ख से सदैव के लिये छुटकारा नहीं मिल सकता। व्यथित मनुष्य को यदि मदिरा पिलाकर बेहोश कर दिया जाय तो अवश्य कुछ क्षणों के लिये, जब तक मदिरा का नशा रहेगा, वह अपनी व्यथा भूला रहेगा। परन्तु नशा उतरते ही वह पुन: उसी अवस्था को प्राप्त हो जायेगा। इसी प्रकार जगत् के विषयों में मन फँसा कर कोई दु:खों से छुटकारा पाना चाहे तो यह सम्भव नहीं।

आत्मा का ज्ञान होने पर सम्पूर्ण दु:ख सदैव के लिये नष्ट हो जाते हैं। एक ही चैतन्य भिन्न - भिन्न नामों से पुकारा जाता है। परमात्मा ही सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मारुप से व्याप्त है। आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं। जो आत्मा है वही चैतन्य जीव भी कहलाता है। भेद केवल उपाधि का है। उपाधि - युक्त चैतन्य ही जीव कहलाता है और सम्पूर्ण उपाधियों को त्याग देने पर वही चैतन्य आत्मा है। आत्मा और जीव का भेद ऐसा है जैसे धान और चावल का। जब तक एक भूसी बनी हुई है उसे धान कहा जाता है और जब उसकी भूसी हटा दी जाती है तब वही चावल कहलाता है। तत्वत: जो धान है वही चावल।

अज्ञान से मोहित हुआ जीव कर्म के बन्धनों में पड़ता है। अज्ञान ही भ्रम कहलाता है। इनकी निवृत्ति यथार्थ ज्ञान से होता है। ज्ञान प्राप्त करने के लिये शास्त्र और सद्गुरु की सहायता अपेक्षित है। बिना गुरु के कोई जीवन भर माथा रगड़े, परन्तु आत्मज्ञान नहीं हो सकता। नदी पार करने वाले दस पुरुषों के दृष्टान्त में जब तक एक महात्मा ने आकर उनका भ्रम दूर नहीं कर दिया, तब तक वे अपने एक साथी के डूबने के भ्रम में विलाप करते रहे। जब महात्मा ने गणना करवा कर बतलाया कि दशमस्त्वमसि दसवें तुम हो, तब उनका शोक नष्ट हुआ। इसी प्रकार गुरु के द्वारा ही तत्वमसि का यथार्थ बोध होता है।

भगवान् के अस्तित्व और उसकी दयालुता में अपना विश्वास दृढ़ करो। धैर्यपूर्वक प्रारब्ध भोग करते हुये अपने - अपने वर्ण और आश्रम के धर्म का ठीक रूप से पालन करते जाओ। स्वधर्म का पालन करते रहने से अन्त:करण पवित्र होगा और तभी आत्म - ज्ञान प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त होगी। ज्ञान - प्राप्ति के लिये व्यवहार से दूर भागने की आवश्यकता नहीं। संसार का व्यवहार तो चलाते रहो, परन्तु मन को उसमें न फँसाओ। संसार में जो राग हो गया है वही बन्धन का हेतु है, संसार बन्धन का हेतु नहीं है। अत: राग का त्याग करके अक्षय सुख का अनुभव करो। हम किताबी बातें नहीं कहते, यह सब हमारी अनुभूत बातें हैं। यदि आप निष्ठा - पूर्वक इनका पालन करें तो अवश्यमेव सुखी हो सकते हैं।

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