श्रावणे पूजयेत शिवम् || Vaibhav Vyas


 श्रावणे पूजयेत शिवम्

श्रावणे पूजयेत शिवम्- अर्थात सावन के महीने में भगवान शिव की पूजा-आराधना और जप-तप करना विशेष रूप से फलदायी होता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार सावन का महीना महादेव भोले भंडारी को अत्यंत ही प्रिय होता है। धर्म शास्त्रों में सावन के महीने का विशेष महत्व बताया गया है। सावन के महीने में भगवान शिव जल्द प्रसन्न होकर अपने भक्तों की मनोकामनाएं पूरी करते हैं। इस महीने शिव मंदिरों में शिव भक्तों और भगवान शिव से जुड़ी पूजा-उपासना का सुंदर वातावरण बना रहता है। सावन के महीने में भगवान शिव का जलाभिषेक और सावन सोमवार का व्रत रखते हुए विधिवत रूप से भोलेनाथ की पूजा-अर्चना की जाती है। सावन के महीने में कांवड़ यात्राएं निकाली जाती है। महिलाएं सावन के महीने में सोलह सोमवार का व्रत रखने का संकल्प लेती हैं। सावन के महीने में भगवान शिव को गंगाजल, बेलपत्र,भांग, धतूरा आदि चीजों को चढ़ाया जाता है। इस माह में शिवजी का ध्यान करते हुए शिव चालीसा, रूद्राभिषेक और शिव आरती की जाती है। सावन के महीने में भगवान शिव की विशेष रूप से पूजा करने के पीछे कई पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई है।

पार्वतीजी की तपस्या से भगवान शिव हुए प्रसन्न- मान्यता है कि पर्वतराज हिमालय के घर पर देवी सती का पार्वती के रूप में दोबारा जन्म हुआ था। जगत जननी पार्वती ने भगवान शिव को फिर से पति रूप में पाने के लिए कठोर व्रत, उपवास करके भगवान शिव को प्रसन्न किया। इसके बाद भगवान शिव ने प्रसन्न होकर माता पार्वती की मनोकामना को पूरा करते हुए उनसे विवाह किया था। सावन के महीने में ही भगवान भोले शंकर ने देवी पार्वती को पत्नी माना था इसलिए भगवान शिव को सावन का महीना बहुत ही प्रिय है।

श्रावण मास में हुआ समुद्र मंथन- समुद्र मंथन के समय जब कालकूट नामक विष निकला तो उसके ताप से सभी देवता भयभीत हो गए। तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। लोक कल्याण के लिए भोलेनाथ ने इस विष का पान कर लिया और उसे अपने गले में ही रोक लिया जिसके प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया और वे नीलकंठ कहलाये। विष के ताप से व्याकुल शिव तीनों लोकों में भ्रमण करने लगे किन्तु वायु की गति भी मंद पड़ गयी थी इसलिए उन्हें कहीं भी शांति नहीं मिली। अंत में वे पृथ्वी पर आये और पीपल के वृक्ष के पत्तों को चलता हुआ देख उसके नीचे बैठ गए जहां कुछ शांति मिली।

शिव के साथ ही सभी देवी-देवता उस पीपल वृक्ष में अपनी शक्ति समाहित कर शिव को सुंदर छाया और जीवन दायिनी वायु प्रदान करने लगे। विष का प्रभाव कम करने के लिए सभी देवी-देवताओं ने भगवान शिव को जल अर्पित किया,जिससे उन्हें राहत मिली। इससे वे प्रसन्न हुए। तभी से हर वर्ष सावन मास में भगवान शिव को जल अर्पित करने या उनका जलाभिषेक करने की परंपरा बन गई।

भगवान राम ने किया अभिषेक- एक अन्य मान्यता के अनुसार श्रावण मास में भगवान श्री राम ने भी सुल्तानगंज से जल लिया और देवघर स्थित वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का अभिषेक किया। तभी से श्रावण में जलाभिषेक करने की परंपरा भी जुड़ गई। शिव का जलाभिषेक करने के लिए श्रद्धालु हरिद्वार, काशी और कई जगह से गंगाजल लेकर कांवड़ यात्रा करते हैं।

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