सनातन संस्कृति और वैज्ञानिक आधार || Vaibhav Vyas


 सनातन संस्कृति और वैज्ञानिक आधार

सप्तमी तिथि की अधिष्ठात्री कालरात्रि होती है। दुर्गा सप्तशती में कालरात्रि का स्वरूप गधे पर सवार, श्याम वर्ण, खुले केश, खड्ग, आदि हाथ में लिए हुए देखते हैं और नवरात्रि की सप्तमी को इसी भगवती की पूजा होती है। महा ब्रह्मांड में यह सूर्य की शक्ति है। काल अर्थात समय, समय से ही पदार्थ का निर्माण होता है, और समय से ही समाप्त होता है। प्रत्येक चर और अचर की अवधि निश्चित होती है।

प्रत्येक सप्तमी की अधिष्ठात्री भी यही होती है। समय गणना के अनुसार मीन की संक्रांति अर्थात सूर्य का मीन राशि में प्रवेश होने पर सर्दी भी समाप्त हो जाती है। (कुम्भे शीतमशीतं वा मीने शीतं विन्स्यति) शिशिर ऋतु में जो श्लेष्मा शरीर में व्याप्त रहती है वह वसंत ऋतु के आते ही पिघलने लगती है। जिस प्रकार से प्रकृति में पतझड़ आता है वैसे ही हमारे शरीर में धातुओं की नव रचना होती है। इसलिए आयुर्वेद भी यही कहता है कि सर्दी में जो जमा हुआ बलगम है वह बसंत में कुपित होता है। अत: गर्म पदार्थ,  (तैलीय पदार्थ) और बिगाड़ कर सकते हैं। अत: प्रात: कालीन भ्रमण व चित्रक औषधि का सेवन शरीर में होने वाले परिवर्तन का बिगाड़ होने नहीं देते।  (बसन्ते भ्रमणं पथ्यम् अथवा पथ्यं चित्रक सेवनम्) अत: सप्तमी के दिन मीन संक्रांति के 12 दिन बाद शीतल पदार्थों का सेवन प्रारंभ कर देते हैं। शरीर में कफ (श्लेष्मा) का बनना  भी जरूरी है, सर्दी में यही श्लेष्मा सर्दी से बचाव करती है और गर्मी में भी यही श्लेष्मा गर्मी से बचाव करती है। आध्यात्मिक स्वरूप  के कारण शीतला अष्टमी को बासी (ठंडे) पदार्थों का सेवन करना प्रारंभ कर देते हैं। सर्दी में छोड़ी गई मटकियों का प्रयोग पुन: शुरू कर देते हैं। सनातन संस्कृति में कोई भी त्यौहार पाखंड नहीं है। उसके पीछे प्रकृति के वैज्ञानिक रहस्य को जान लेना जरूरी है।

(चैत्रवैशाखयो: बसन्त:) चूंकि बाह्य प्रकृति में नयी कोंपले फूटती है और प्रकृति में नव रचना होती है। इसी तरह से शरीर में नूतन परिवर्तन होते हैं। सभी धातुओं का नव निर्माण होता है। यह स्वस्थ और स्वच्छ बने इसीलिए चैत्र नवरात्रि की प्रतिपदा  से सप्तमी तक नीम की कच्ची  कोपलें और मिश्री, घी में तली काली मिर्च और घी भगवती को समर्पित कर प्रात: काल लिया जाता है। इससे खून के साथ-साथ सभी धातुएं शुद्ध हो जाती हैं। दैव उपासना के साथ-साथ स्वस्थ और सुखी जीवन व्यतीत करते रहे यही सनातन धर्म है।

सनातन धर्म में जहां आध्यात्मिकता की गहराई जुड़ी होती है वहीं साथ ही साथ उसका वैज्ञानिक आधार भी रहता है। यही वजह है कि किसी भी पर्व-त्यौहार के पीछे होने वाले कार्यों में आध्यात्मिकता के साथ-साथ उसका वैज्ञानिक पक्ष भी उजागर होता है। इसी वैज्ञानिक पक्ष को विज्ञान के आधार पर कई बार शोधों के बाद इसे सच साबित भी किया गया है फिर चाहे वह त्यौहार होली हो, दिवाली हो या शीतला अष्टमी हो। सभी त्यौहारों के पीछे जुड़े तथ्य और उनकी प्रचलित प्रथाएं आज भी हजारों वर्षों बाद भी विद्यमान है, जिसे आज विज्ञान ने भी माना है।

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