आनंद प्राप्ति के लिए करें भीतर की यात्रा || Vaibhav Vyas


 आनंद प्राप्ति के लिए करें भीतर की यात्रा

आनन्द बाह्य वस्तु नहीं है, आनंद भीतर की यात्रा है। हमारे आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया में, हम वह क्षमता प्राप्त करते हैं जिससे आत्मा द्वारा आनंद तक पहुंच पाएं तथा उसे प्राप्त कर सकें। हममें से प्रत्येक व्यक्ति आध्यात्मिक विकास के विभिन्न चरण में है। हमें जो आनंद की अनुभूति होती है उसकी गुणवत्ता तथा मात्रा और उसकी अनुभूति होने की कालावधि हमारे आध्यात्मिक विकास के स्तर के अनुपात में होती है। जब हम प्रतिदिन सवेरे दर्पण में देखते हैं तो हमें स्वयं की छवि देखने की आदत हो जाती है; लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि यदि आप कभी अपनी आत्मा की छवि देख पाए, तो आप कैसे लगेंगे?

अध्यात्म शास्त्र के अनुसार हम इसे जीव कहते हैं क्योंकि यह 'आत्माÓ के रूप में अपनी पहचान खो देता है और स्वयं को पंचज्ञानेंद्रियों, मन और बुद्धि के अनुसार सोचने लगता है। सूक्ष्म देह की आत्मा को जीव के रूप में भी जाना जाता है। आज के संसार में एक सामान्य व्यक्ति कैसा दिखाई देता है यह उसकी एक आंतरिक छवि है। बाह्य रूप से, हम प्रतिदिन अपने घर को स्वच्छ करते हैं और देह को स्नान कराते हैं क्योंकि हमें बाहर की गंदगी सहजता से दिखाई देती है; परंतु आंतरिक आध्यात्मिक स्वच्छता एक अन्य बात है और उसे करना दुर्लभ है। आत्मा के रूप में हमारे अंदर दिव्य प्रकाश है परंतु यदि सबसे अधिक चमकीले प्रकाश को भी मोटे कंबल से ढंक दिया जाए तो वह दृष्टि से दिखाई नहीं देगा। हमारी आत्मा के चारों ओर जो अंधकार है वह हमारे सत्य स्वरूप आनंद के प्रति 'अज्ञानताÓ है । इस आध्यात्मिक अज्ञानता का अर्थ है हमारे पंचज्ञानेंद्रियों, मन और बुद्धि से परे देखने की तथा आत्मा को जानने की हमारी असमर्थता। जब हम (जीव) साधना करते हैं तो अंधकार धीरे-धीरे घटने लगता है और हम आत्मा तथा उसके आनंद को अनुभव कर पाते हैं।

हम नियमित रूप से योग, साधना अथवा ध्यान करते हैं तो हमें दिव्यता के चमत्कारी अनुभव होने आरंभ होते हैं जिसे अनुभूति कहते हैं। शिवदशा ही अंतिम अवस्था होती है-अर्थात् ईश्वर से एकरूप होना अथवा ईश्वर के अखंड आंतरिक सानिध्य में रहना है। अंतिम अवस्था तभी आती है जब आवरण पूर्णत: समाप्त हो जाता है और आत्मा के प्रकाश को रोकने वाली अज्ञानता के नष्ट होने पर पवित्र आत्मा प्रकाशमान होती है। इसके लिए नित्य प्रति योगाभ्यास द्वारा ध्यान की गहराइयों में जाने से ही उसकी तह तक जाया जा सकता है। अगर स्वयं से ऐसा नहीं हो पाए तो समर्थ सद्गुरु की प्रेरणा से भीतर की यात्रा की ओर सहज जाया सकता है। इसीलिए प्रतिदिन स्वयं के लिए कुछ समय अवश्य निकालें जिससे एकांत में समय व्यतीत किया जा सके। ऐसा नित्य करने से निसंदेह जीवन की ऊंचाइयों को छुआ जा सकता है।

मुण्डकोपनिषद् में विद्वान ऋषि कहते हैं-तद्विज्ञाने न परिपश्यन्ति धीरा आनंद रूपमर्भृतम् यद्विभाति- अर्थात् ज्ञानी लोग विज्ञान से अपने अंतर में स्थित उस आनंदरूपी ब्रह्म का दर्शन कर लेते हैं एवं ज्ञानियों में भी परम ज्ञानी हो जाते हैं। सुख भौतिक है तो आनंद आध्यात्मिक।

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