शनिदेव और हनुमंत उपासना || Vaibhav Vyas


 शनिदेव और हनुमंत उपासना 

धातु, रत्न और छल्लों के बाद यदि हम शनिदेव की महादशा, उनकी अन्तर्दशा तथा प्रत्यंतर क्रम में चर्चा करें कि कौनसी उपासनाएं शनिदेव की ऐसी स्थितियों में फलाफल में सकारात्मकता लेकर आती है तो उसमें हनुमंत उपासना एवं दशरथकृत शनिस्त्रोतम् के नाम प्रमुखता से सामने आते हंै। वस्तुतः हनुमंत जब सूर्य को ग्रस लेते हैं तो उस समय दो ही ऐसे ग्रह थे जो हनुमंत से युद्ध लड़ने के लिए पहुंचते हैं। उसमें ग्रहों में सेनापति मंगल तथा शनिदेव जो कि स्वयं सूर्यपुत्र है उनके पराक्रम और हिम्मत को देखते हुए हनुमंत अति प्रसन्न होते है और दोनों को ही ये वरदान देते हैं कि उनके परिभ्रमण काल के साथ यहां जो भी हनुमंत उपासना और आराधना करेगा, उन्हें सकारात्मक संघर्षों की ऊर्जा मिलेगी। 

वहीं जब हनुमंत लंका दहन के समय एक कक्ष से कराहने की आवाज सुनते हैं तो वो कक्ष खोलने पर मालूम चलता है कि वहां शनिदेव है। हनुमंत उनकी पीठ पर तेल लगाते हैं तथा उस समय भी शनिदेव ये ही कहते है कि ढै़य्या या साढेसाती के समय जो हनुमंत उपासना करेगा उसके लिए नकारात्मक प्रभाव तेजहीन होंगे। 

वहीं दशरथकृत शनि स्त्रोतम् में भी आप देखिएं कि प्रजा की रक्षा के लिए दशरथ इस स्त्रोत का रचित आधार बनाते हंै। जहां प्रमुखतया सेवा की भावना निहित है। यानि जहां पर भी स्वामी भक्ति, सेवा की भावना तथा दूसरों की स्थितियों को महसूस करके तत्क्षण उनकी मद्द के लिए जो तैयार रहता है, जिसमें वृद्धजनांे की सेवा तथा प्रमुख तौर पर सेवा भावना यहां यदि निहित रहती है तो शनिदेव की दशा-अन्तर्दशा या ढै़य्या-साढ़ेसाती के समय प्रभाव सकारात्मकता की ओर भी व्यक्ति को लेकर जाते हैं। 

उपासना में श्रद्धा की प्रमुखता रहनी चाहिए, जब उपासनाएं कामना मुक्त हो, भावना युक्त हो, तो फलाफल में वृद्धि देती है।  

 


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