मन को मिलने वाली संतुष्टि ।

 मन, मन बोझिल है और उसके पीछे कारण है कि लोगों की अपेक्षाएं मन के भीतर गहरे से प्रवेश कर चुकी है। घर की जिम्मेदारियों जो वर्षों से निभाते आए हैं, अब वो थकान देने लगी है। वर्षों से किया जाने वाला एक ही कार्य बारम्बार आजीविका को आगे बढ़ाने के लिए किया जा रहा है। वो भी अब एक उकताहट देने लगा है। ये साारी ही स्थितियां सम्मिलित होकर झुंझलाहट के आधार को बनाती है जिससे मन बोझिल हो उठता है। शारीरिक और मानसिक स्तर की थकान जब इस तरह से हावी होने लगती है तो व्यक्ति भविष्य के ऊपर संशय लगाने लगता है और जब भी भविष्य के ऊपर संशय होंगे तो वर्तमान में कर्म से विरक्ति आती चली जाएगी और जब वर्तमान के कर्म से विरक्ति है तो दुविधाएं और ज्यादा बढऩे लगती है। ऐसी स्थितियों से मुक्त होने के लिए क्या करना चाहिए? ये एक महत्वपूर्ण प्रश्न है जिसका जवाब खोजने की आवश्यकता है और प्रयोग के साथ में भी चलना चाहिए।

 कई बार ऐसे सवाल होते हैं जिनका जवाब हमको हमारे कार्य क्षेत्र के साथ, घर परिवार के साथ में जुड़कर मिल नहीं पाता। वहां ईश्वरीय सत्ता की शरण में जाने की आवश्यकताएं होती है। हम अपने मोबाइल, हम अपने वोलेट, और कोई भी ऐसा गेजेट जो प्रोफेशनल लाइफ में या फिर वर्क करते समय भी कैरी करते हैं। कुछ समय के लिए उसको घर रख दिया जाए। हम किसी मंदिर जाएं जहां पर कोई भी कामनाएं नहीं हो। मेरा ये कार्य पूर्ण हो जाएगा तो मैं आऊंगा। मेरे बच्चों की शादी हो जाएगी तो मैं इस तरह से आपको ये प्रसाद चढ़ाने वाला रहूंगा। ये सारी ही स्थितियां व्यक्ति अपने जीवन में लेकर चलता है। और कहीं न कहीं उसमें मनोकामनाओं की युक्ति पूरे तरीके से शुमार रहती है। किन्तु कुछ समय के लिए मन की स्लेट को साफ किया जाए और जो भी भावनाएं हैं उनको शुद्धिकरण के आधार के साथ में मन में हम रखें। मंदिर के प्रांगण में पहुंचे और वहां पूरे तरीके से एक जुड़ाव महसूस करने वाले हों। करुणावतार के साथ में जो मन पूरे तरीके से रच-बस जाए और जो माहौल है उसको देखकर हम धीरे-धीरे एक प्रसन्नता का अनुभव करने का प्रयास करें। जबरदस्ती प्रसन्नचित्त होने की बात नहीं कर रहा हूं, किन्तु जब भी हम उस माहौल में रचने-बसने लगते हैं। एकाकार के स्वरूप को निहारते हुए मन में जो स्पंदन जाग्रत होता है वो चेतनाओं को जन्म देने वाला होता है। 

जब भी चेतनाएं भीतर तक जाग्रत अवस्था में जन्म लेती है तो जो मन के भीतर की जितनी भी भेद है, जिनके साथ में भी कुंठाएं हैं। एकांत भी कई बार व्यथित करता है। ऐसी स्थितियों से धीरे-धीरे हम दूर हटने लगते हैं। स्पष्टता आने लगती है। हम स्वयं से यह कह पाते हैं उसी जगह बैठकर कि भले ही चुनौतियां है, हम थके हैं, किन्तु हारे नहीं हैं। हम आगे बढऩा चाहते हैं। यहां हम अपने भीतर की ऊर्जा को कहीं-न-कहीं खो चुके थे। उससे पुन: जुडऩे का प्रयास करना आवश्यक है। और ऐसे प्रयोगों के साथ में आपको चलना चाहिए। मैंने मोबाइल की, वालेट या कोई भी ऐसी गेजेट को उस समय दूर रखने के बात इसलिए कही है कि वैसे भी मन के भीतर हम एक भारीपन के साथ में जा रहे हैं जिसको दूर करना चाहते हैं। ये सारे ही भौतिकता के भारीपन हैं जिनके गुम होने की चिंताएं लगातार रहती है। आप देखिये कि आदत में शुमार हो जाता है हम वालेट में अपने एक तरह से जो भी रुपये-पैसे की स्थितियां होती है, कार्ड्स होते हैं उनको चैक करने वाले होते हैं। तो वहीं पर जो मोबाइल है, वो साथ में है या नहीं है, बारम्बार जेब पर हाथ जाता है। ये आदत में शुमार बुरी स्थितियां होती है जो कहीं-न-कहीं सजगता को अवेयरनेस के साथ में भटकाने वाली होती है। इस भटकाव से दूर रहने के लिए ये सारे ही स्थितियां कुछ समय के लिए घर पर रखी जाए और फिर जुड़ाव महसूस किया जाए तो अत्यधिक आनंद की प्राप्ति होती है।

 मैं व्यक्तिगत अनुभव साझा करूं। जोधपुर में रहता हूं। घनश्याम जी का मंदिर है, कुंज बिहारी जी का मंदिर है, अचलनाथ जी का मंदिर है, जब भी यहां जाता हूं मन के भीतर एक सुकून और संतुष्टि का भाव आता है। प्रवास पर होता हूं, अहमदाबाद गए, कैम्प हनुमान जी, दिल्ली गए तो झंडेवाला के दर्शन के बिना पुन: लौटने वाले नहीं होते। वहीं मुम्बई गए सिद्धि विनायक शीश नवाएंगे फिर आगे बढऩे वाले होंगे। पूना में डमरु सेठ है या फिर वहां से तीन घंटे की दूर करके भीमाशंकर पहुंचे। हैदराबाद गए हैं तो मल्लिकार्जुन दर्शन किए बिना वो यात्रा पूर्ण हो नहीं सकती। मन में एक संतुष्टि के भाव रहता है। कन्याकुमारी है दक्षिण के छोर के ऊपर है, तो वहां पर भी मां की आराधना और उपासना के साथ में बढऩे वाले होंगे। जगत पालक और साथ ही साथ में जगन्नाथ के दर्शन करने की स्थितियां भी मन के भीतर एक अलग भाव को देने वाली होती है। हम इसी के साथ में कलकत्ता जाएं मां काली के दर्शन किए बिना लौटने वाले नहीं होते। उन सारी ही स्थितियों में एक ऊर्जा है। भले ही आप इन्दौर की बात कर लीजिये, खजराना चले जाइये वहां मन की संतुष्टि है, जयपुर की बात कर लीजिये मोती डूंगरी चले जाइये, बीकानेर की चर्चा कर लीजिये वहां पर हम मां नागेचीजी और मां करणी के दर्शन करने वाले हों। मन के भीतर संतुष्टि के भाव जाग्रत होते हैं। यहां तक कि राजकोट चले जाएं हनुमान के दर्शन करते हैं ये सारे ही भाव उससे आगे द्वारकाधीश के दर्शन उन सारे ही प्रांगण में उस ईश स्थान के साथ में ऊर्जा का एक भाव है जो मन को संतुष्टि के साथ जाग्रति देने वाला होता है। चेतनाएं मिलती है कि कर्म अतिआवश्यक है। मन के भीतर जो ये बारम्बार उलझने आ रही हैं इससे सुलझाने में ये सारे ही प्रांगण पूरे तरीके से आपके अस्तित्व को सहयोग देने वाले होते हैं। वहां पर रचना-बसना अपने जीवन को जोडऩा और एक तरह से नए स्वरूप के साथ में सब कुछ देखना अतीव आवश्यक रहता है। जुडऩे का प्रयास किया जाए। चला जाए और वहीं से संतुष्टि के भाव केन्द्रित किया जाए। आप देखियेगा, ये प्रयोग कई बार संतुष्टि देने वाले होते हैं। हम जहां पर भी हों, जैसे भी हों, जिस भी हिसाब से हों, ये प्रश्न अगर छोडऩे हैं कि क्यों कर रहे हैं, किस तरह से करने वाले होंगे कहां पहुंचने वाले होंगे तो आप ऐसे मंदिरों में समय थोड़ी देर के लिए ही सही किन्तु जो भी भौतिकता के साधन है उनसे दूर होकर जुडऩे का प्रयास करे। आप देखियेगा, मन में एक स्पंदन पुन: आने लगता है।

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