तर्क एवं कुतर्क की स्थिति ।

 एक व्यक्ति रोज तय समय पर अपने ऑफिस पहुंचता है और लंच टाइम तक का जो वक्त है वहां अपने कामकाज को बहुत अच्छे से पूर्ण करता है। पूरी एनर्जी बनी रहती है। जो उसने अपने लिए वर्किंग प्लानिंग को सामने रख रखा था, आसानी से लंच टाइम तक पूरा कर देता है। किन्तु एक 1.30 से 2 के मध्य लंच की अवधि समाप्त होती है और वहां कलिग्स के साथ बातचीत, जो कि विषय से हटकर होती है, उसके बाद में उसके मन में कुछ खिन्नता रहती है। और जो वर्किंग एफीसिंयसी में भी कमी आ जाती है। वो व्यक्ति कई दिनों तक इस बात से व्यथित रहा और अपने भीतर मंथन करता रहता कि ये किस वजह से हो रहा। 

एक दिन वो शेडयूल तय करता है और 1.45 तक शिड्यूल रहता है कि ये क्या हो रहा है उसको समझने की आवश्यकता है। वहां वह व्यक्ति चर्चाओं में निमग्न था जो कि तर्क और कुतर्क में समाहित होता है। वहीं पर वह खुद को रोक देता है, दूसरे कलिग्स है वो चर्चाएं कर रहे होते हैं तो वो समझने का प्रयास करता कि चल क्या रहा है। जिस व्यक्ति की जो विचारधारा है नहीं वो सही सिद्ध करने के लिए, विजेता प्रूव करने के लिए एक बहस के स्तर तक का आ चुका होता और वहीं पर कुतर्क का कोलाहल जन्म ले चुका होता। उस व्यक्ति को समझ में आने का लगा कि ऊर्जा का ह्रास कहां से हो रहा है। तो अगले दिन फिर से शिडयूल डालता है कि और लिखता है कि मुझे कोई तर्क नहीं करना है और जब वो उस चर्चा को सुनने लगता है तो उसको समझ में आने लगता है कि मेरी जो विचारधारा ही नहीं है, जो मैंने कभी सोचा ही नहीं है, मैं उन सभी चीजों और स्थितियों को गलत या किसी भी तरीके से सही स्वरूप में सामने रखने की होड़ के अंदर चल रहा था और इसी वजह से मन व्यथित करने वाले स्तर की ओर चलायमान था। 

हम कई बार चर्चाओं में होते हैं। चर्चाएं कब बहस में बदलती है, और बहस कब कुतर्क को जन्म देने लगते हैं। मन के भीतर एक ऐसी कुंठा जाग्रत होने लगती है जो हमारे साथ में कभी थी ही नहीं। इसी वजह से जहां पर चाहे आफिस हो, व्यापारिक जीवन हो, स्कूल कालेज हो, यहां शुरुआत से ही यह आदत डालते हैं कि सार्थक चर्चाएं हो रही है, बहस भी नहीं कहेंगे, वहां से जैसे ही जुड़ते हैं मन के भीतर एक अपनत्व का स्नेह का और सीखने का भाव होता है वो जाग्रत होने लगता है। हम जीवन में कई बार किसी बहस में सम्मिलित होकर वहां से क्या सीख पाते हैं। कितनी कुंठाओं को जन्म दे पाते हैं। कितने विद्रोह को जन्म दे पाते हैं। ये समझने की आवश्यकता है। उस व्यक्ति ने शेडयूल सेट करके अपने ही गलत आधार को पहचाना और उस गलती को आसानी से सही करता चला गया। जब भी बहस या कुतर्क होंगे वो कुतर्क दो से तीन घंटे लेकर जाएंगे। 

स्कूल कालेज की लाइफ में आपको कह दे आप ऐसे हो, तो दो तीन घंटे तक व्यक्ति यही सोचता रहता है कि मुझे ऐसा क्यों कहा गया, मैं ऐसा नहीं हूं। आप खुद को ही कान्ट्राडिक्शन की पोजीशन में लाते हैं और ये मौका ढूंढऩे लगते हैं कि वो जब भी मिलेगा और जवाब दूंगा और कुतर्क की स्थितियां भी यही रहती है। तब चर्चाएं किस स्तर तक पहुंच जाती है पता ही नहीं चलता। वर्किंग क्षमता घटने लगती है। हम ऐसी बहस में विजेता साबित करके कहीं पहुंचने वाले नहीं होते, जब ये स्पष्टता सामने हो तो काफी हद तक जीवन सुगम होने लगता है।

Comments

  1. Jo aapne likha hai wo 100% sahi hai, energy drain hoti hai बहस karne se. To hume kya logo se baat krna band kar dena chahiye? Kyu ki aajkal to sab hi (mai bhi) kutark hi krte hain, apne aap ko sahi prove krne ki koshish krte hain.

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