आत्म स्वाभिमान ।

 दो दोस्त वर्षों बाद उसी पार्क में मिलते हैं जहां उनका बचपन गुजरा था। आज नौकरी की वजह से दोनों ही अलग-अलग शहरों में है। किन्तु पुरानी यादों को ताजा करने के लिए उसी पार्क में आकर मिलते हैं। वो पुरानी चर्चाएं होती है। क्या शरारते उन्होंंने की थी, वो सब कुछ उनके साथ चलता हुआ नजर आता है वर्षों के बाद भी। तो वहीं एक अनुपम दृश्य उनके सामने होता है। जहां वो क्रिकेट खेला करते थे, आज वहां वैसे ही बच्चे क्रिकेट खेलते हैं, उन्हें देखकर उन्हें सुखद अहसास मिलता है। किन्तु उसी दृश्य में एक और स्थिति सामने आती है, बच्चे पुराने बैट से खेल रहे होते हैं, तो वहीं उस गेंद से खेल रहे होते जो बहुत फटी और पुरानी है जिसको खेलने में परेशानी आ रही है। एक दोस्त होता है और बच्चों से गुजारिश करके बैट हाथ में थामता है और बॉल पर ताकत से प्रहार करके वो गुमा देता है। बच्चे थोड़ा नाराज-परेशान होते हैं और उन जो युवक हैं उनसे कहते हैं कि आप हमारी बॉल गुमा दी, ये एक ही बॉल हमारे पास थी। अब खेलने का बंदोबस्त नहीं है। वहीं वो युवक जेब से कुछ रुपये निकालता है और कहता है कि मेरी गलती की भरपाई एक बैट बॉल से कर लीजिये, मैं माफी चाहता हूं। आप नया खरीद लीजिये। ये दृश्य देखकर दूसरा युवक बैठा होता है, प्रसन्नचित्त होता है। जैसे ही वापस लौटकर दोस्त के साथ बैठना होता है तो वो कहता है कि तुम उन्हें सीधे ही रुपये पकड़वा सकते थे। वो जो मित्र है जिसने गेंद को गुमाया था, वो कहता है मैं रुपये थमा सकता था, बैट दिला सकता था, किन्तु मैं उनके आत्म स्वाभिमान को कम नहीं करना चाहता था। इसलिए पहले गेंद को गुमाया फिर रुपये थमाये, जिससे ये नई ला सके। स्थितियां और परिस्थितियां कई बार हमारे सामने आती है जहां हम अगले की मदद करना चाहते हैं। 

हम उस संभावित आधार पर होते भी है। ईश्वरीय अनुकंपा साथ में होती भी है किन्तु इस बात में ये पूरे तरीके से ख्याल रखा जाए कि अगले व्यक्ति का जो आत्म स्वाभिमान है उस स्तर को कहीं पर भी ठेस पहुंचने वाली नहीं हो। दफ्तर में किसी व्यक्ति विशेष को कुछ सीखाना है। उसका तरीका बदला जा सकता है। आप ये कह सकते हैं कि आप ऐसा कीजिये साथ में यह भी कह सकते हैं कि हम एक बार इस तरह से कोशिश करके देखते हैं। दोनों ही शब्दों में बहुत बड़ा अंतर है। 

एक में मित्रता का और गाइड का भाव है और दूसरे में डोमिनेट करने वाली एप्रोच है। ये कहानी मुझे कई बार बड़ी ही प्रेरित करती है, किन्तु आप भी इस बात को स्मृतियों में अंकित करने का प्रयास करें कि जब भी ईश्वरीय अनुकंपा और व्यवस्थाएं हमारे साथ में हो। मदद करना हम चाहते हों ये हमारे स्वभाव में हो। उसके तरीके यदि थोड़े से परिवर्तित कर दिए जाएं तो अगला व्यक्ति और मुखर होकर ऐसी स्थितियों में चल पाता है तथा संतुष्टि के भाव को भी अपनाता चला जाता है।

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