व्यक्ति बचपन से ही अपनी शक्ल आईने में देखता है। लोगों के द्वारा अपने शारीरिक स्तर के प्रति कई सारियां टिप्पणियां देखता है। बाल सफेद हो रहे हैं, चेहरे पर छुर्रियां आ रही है। पहले आप बहुत भागदौड़ करते थे, किन्तु अब थकान होने लगी है। ये संकेत बारम्बार हमको जीवन में मिलते हैं। हम स्वयं भी महसूस कर पाते हैं कि पहले से पांच-सात किलोमीटर चलने में दिक्कत नहीं थी, किन्तु अब धीरे-धीरे एक थकावट आने लगी है। ये अवरोध शारीरिक स्तर के ऊपर कितना ही व्यायाम करें, किसी आधार पर चलें हल्के ïफुल्के तो आते ही हैं क्योंकि ये अवस्था के लक्षण मात्र है, जिसके साथ व्यक्ति चलता है। किन्तु मन परिवर्तित नहीं हो पाता। मन कई स्थितियों को स्वीकार नहीं करता। यदि मैं प्रोफेशनल लाइफ की बात करूं तो आप 25 वर्षों से एक ही जगह कार्यरत है, नए लोग आते हैं हम यही कहते हैं कि ऐसे कई अवसर आए और हम ऐसे ही बने रहे, अब तो रिटायरमेंट में पांच से सात साल बचे है, कौन हमको परिवर्तित करेगा, देख लेंगे। ये बातें सुनने में आती है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से हम भी इन सारी स्थितियों को सुनते हैं।
कोई नया व्यक्ति आता है तो हम कहते हैं टेक्नोलॉजी का ज्ञान लाया है, किन्तु अनुभव नहीं है। तो हम वहां पर उसी अनुभव को बांटने के लिए है। जरूरी नहीं है कि मित्रता का आधार दो से चार वर्ष की उम्र की अंतराल में ही बनता है जिस तरह से पति और पत्नी दोस्त हो सकते हैं। रिश्तों में भाई है, किन्तु दोस्ती हो सकती है, उसी तरह ऑफिस कल्चर में भी 15 से 20 वर्ष का गेप है किन्तु फिर भी दोस्ती सामने आ सकती है। हम रिश्तों को एक नई परिभाषा वहां से दे सकते हैं। यदि हम चाहें तो। कोई व्यक्ति आ रहा है, हम उसको आब्जर्व करने की ओर जाते हैं, संशय के साथ में लगातार हम उसको देखते हैं। कुछ दिनों के बाद में पूरी जानकारी हासिल कर लेने के बाद ही उसके साथ हम एक जुड़ाव महसूस कर पाते हैं। किन्तु यही प्रक्रिया यदि परिवर्तित कर दी जाए। आपको मालूम है कि अब सेवानिवृति में पांच से सात सालों का अंतराल है। मैंने जो इन 25-30 वर्षों में अनुभव हासिल किया है इसको हस्तांतरित करने की आवश्यकताएं हैं। आप उस व्यक्ति के साथ जुड़ें, स्वयं को भी तकनीक के बारे में एक अलग तरीके का ज्ञान होगा, वहीं दोस्ती बनती चली जाएगी और हम रिश्तों में कहीं पर भी नकारात्मक प्रतिक्रियाओं की ओर नहीं आने वाले होंगे। ये एक बहुत बड़ा एस्पेक्ट है लाइफ में, जिसको देखने की आवश्यकता होती है। किन्तु व्यक्ति कई बार ऐसे नजरिये के साथ चलता है, जब भी कोई नया व्यक्ति कामकाज में जुड़ेगा। व्यापारिक जीवन में आएगा। एक व्यापारी ये सोचेगा यहां अब एक तरह से हमारे प्रोडेक्ट का हब बनता जा रहा है, किन्तु एक व्यापारी सोचेगा एक और कंपेटेटिव आ गया। ये एक नजरिया है जिसको देखने की आवश्यकताएं होती है।
जब भी हम इस परिवर्तन की स्थितियों को देखते हैं तो अपने अनुभव को, अपने सोचने के तरीके को और अधिक वृहद करने वाले हो जाते हैं। स्वीकारोक्ति इसका सबसे बड़ा माध्यम है। कोई नया व्यक्ति जीवन में जुड़े, हम कैसे उसके साथ में अपने व्यवहार को आत्मसात कर रहे हैं, नयापन उसको देख रहे हैं, चेहरा खिल उठता है जब हम ऐसी प्रक्रियाओं के साथ मिलते हैं। नहीं तो कही-न कहीं पर व्यक्ति संकुचित होने लगता है। संकुचित हुई जिंदगी डर को उत्पन्न करती है। डर लगातार जीवन में संशय उत्पन्न करते हैं, संशय टेंशन को जन्म देने वाले होते हैं और उन टेंशन के साथ चलता हुआ व्यक्ति न जाने कब डिप्रेशन की ओर आ जाता है और प्रत्येक क्षण इन्सिक्योरिटी की पोजीशन को देखता है, जो उसके जीवन में होती ही नहीं है। यदि शुरुआत में ही इस प्रक्रिया को परिवर्तित कर दिया जाए तो हम ऐसी चिंताओं के साथ जीवन को देखने वाले नहीं होते। ये नजरिया बदलकर हम जीवन को देखते हैं, तो आप देखियेगा, जीवन में आनंद चारों ओर बिखरने लगता है।
True Thought
ReplyDeleteJi Dhnyawad
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