व्यक्ति का कर्म ही बेहतर स्मृतियों का निर्माण करता है ।

 हरेक उम्र व्यक्ति से कुछ नया थामने को कहती है तो पुराना कुछ छोडऩे की सलाह भी देती है। किन्तु व्यक्ति स्मृतियों के साथ और भावी भविष्य की जो संभावनाएं है उसके साथ बना पुतला मात्र है, जो बारम्बार इसी सोच के साथ चलता चला जाता है। इसको एक उदाहरण से समझना आवश्यक है। जब बचपन के बाद में किशोरावस्था है, 15-16 वर्ष की उम्र है। वहां किताबों के साथ में चलना है, दुनिया को समझने की ओर जाना है। रुपये-पैसे के आधार पर इतनी चिंताएं नहीं, आपको सिर्फ और सिर्फ अपनी नॉलेज को एक्वायर करके चलना होता है किन्तु व्यक्ति वहां रिलेशन के बारे में सोचने लगता है। उसी उम्र के साथ में वो ये सोचने लगता है कि मैं किस तरह से बहुत सारा रुपया-पैसा कमाऊंगा। मैं वो सारी ही सुख सुविधाएं कैसे हासिल करूंगा, जो आज से दस से पन्द्रह व्यक्ति मेरे सामने रख रहे हैं। उसी फैशीनेसन को ग्रहण करने की शुरुआत करता है। अभी थामना है तो सिर्फ ज्ञान का आधार। किन्तु मन बारम्बार आगे की ओर इशारा कर रहा है और जब युवावस्था आता है, 25-30-35 और 40 वर्ष की उम्र में बारम्बार मन यही कहता है कि अभी न तो बचपन की स्मृतियों की ओर झांकने की आवश्यकता है, न ही भावी भविष्य के बारे में। 

कर्म व्यवस्थित तौर पर अपने आप बेहतर स्मृतियां बनाएगा और आप भावी भविष्य को भी सुरक्षित करते चले जाएंगे। किन्तु वहां से भी मन सुकून चाहता है, आराम चाहता हैे। ऐसे क्षण चाहता है जो बाद में उसके सामने मौजूद होंगे। किन्तु वहां की जद्दोजहद में भी कई बार व्यक्ति अपने कर्म के साथ इतना व्यवस्थित नहीं हो पाता किन्तु उम्र एक ही इशारा करती है कि यहां कर्म को थाम कर चलिये। जब वृद्धावस्था आ जाती है, आध्यात्मिक के साथ में पूरा जीवन चलता है। किन्तु उस उम्र के साथ में अध्यात्म और ईश भजन की स्थितियां और वहीं जो कर्म किया उसका अनुभव भावी पीढ़ी में  हस्तांतरित करते चले जाना ये एक प्रमुख आधार वहां पर सामने होता है। किन्तु वहां पर भी व्यक्ति कई बार अर्थ तंत्र को थामने लगता है। 

घर-परिवार की जिम्मेदारियां जो पूरे जीवन निर्वहन की है, उसके बारे में भी निरन्तर सोच रहे हैं, ये ही सोच रहती है कि उस बच्चे को सैटल कर दिया जाए। यहां उस पोजीशन को देखा जाए। ये सारी ही जिम्मेदारियां पूर्ण करने का रास्ता अपनाया, किन्तु अब कहीं न कहीं स्वयं को सुकून देने की आवश्यकताएं हैं और उस आध्यात्मिक चिंतन की ओर जाने की आवश्यकता है। उस एसेंस को अपने भीतर समाहित करने की आवश्यकता है जो आपके सामने है। किन्तु वही स्थिति है व्यक्ति बारम्बार कुछ नए आधार के बारे में सोचता है और जो थामना है उसको नहीं थामकर कोई और स्थिति के बारे में ही स्वयं को लेकर चलने का प्रयास करता है। तो इसी वजह से जो भी संकेत मिलते हैं उनको थामकर चलने का प्रयास करना प्रत्येक उम्र में अति आवश्यकता है।

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