बिना फल की इच्छा के करें भोले की भक्ति।

 बिना फल की इच्छा के करें भोले की भक्ति

पुराणों में चार प्रकार के शिवरात्रि पूजन का वर्णन है। मासिक शिवरात्रि, प्रथम आदि शिवरात्रि, तथा महाशिवरात्रि। पुराण वर्णित अंतिम शिवरात्रि है-नित्य शिवरात्रि। वस्तुत: प्रत्येक रात्रि ही 'शिवरात्रिÓ है। ऐसे में यदि हम उन परम कल्याणकारी आशुतोष भगवान में स्वयं को लीन कर दें तथा कल्याण मार्ग का अनुसरण करें, वही शिवरात्रि का सच्चा व्रत है।

धर्मशास्त्रों और पुराणों में कई ऐसी कथाओं का वर्णन मिलता है जिससे पता चलता है कि भगवान भोलेनाथ तो अनजाने में ही की गई पूजा-आराधना का फल दे देते हैं तो फिर विशेष अवसरों पर की गई पूजा-उपासना कितनी हितकारी हो सकती है, सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। बस, मन में दया, परोपकार और कल्याण की भावना का शुमार होना आवश्यक है।

ऐसे ही शिव पुराण में एक कथा आती है, जिसमें एक शिकारी को अनजाने में किए गए व्रत का भी फल दे दिया। कथा का सारांश है कि एक शिकारी ने कर्जा लिया हुआ था, नहीं लौटाने पर उसे एक रात मंदिर में बंदी बनाने का दंड दिया गया। उसके अगले दिन शिवरात्रि थी। मंदिर में कथा श्रवण करते हुए उसे व्रत के बारे में बताया गया। शिकारी दूसरे दिन भूखा-प्यासा शिकार के लिए जंगल जाता है और रात होने की वजह से लौट नहीं पाता है और भूखा-प्यास रहता है। ऐसे में रात बिताने वह बिल्व पत्र के पेड़ पर रात बिताता है और वहीं से चार प्रहर की पूजा उसके शिकार करने की उम्मीद में पूरी हो जाती है। उसके अनुसार चार हिरण आते हैं और वह उनका शिकार करने को तत्पर होता है। हिरण अपनी-अपनी व्यथा कहते हैं कि एक बार छोड़ दें, मैं पुन: आता हूं। उन चारों का शिकार करने के लिए वह अपने धनुष-बाण चढ़ाते है, जिससे बिल्व पत्र नीचे विराजे भगवान शिव पर गिरते हैं और अनजाने में उसकी पूजा हो जाती है और भूखा-प्यासा होने से व्रत भी हो गया था। तो वस्तुत: महादेव शिकारी की दया भाव से प्रसन्न हुए। अपने परिवार के कष्ट का ध्यान होते हुए भी शिकारी ने मृग परिवार को जाने दिया। यह करुणा ही वस्तुत: उस शिकारी को उत्कृष्ट बना देती है। कथा में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस कथा में 'अनजाने में हुए पूजनÓ पर विशेष बल दिया गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि शिव किसी भी प्रकार से किए गए पूजन को स्वीकार कर लेते हैं अथवा भोलेनाथ जाने या अनजाने में हुए पूजन में भेद नहीं कर सकते हैं। वास्तव में वह शिकारी शिव पूजन नहीं कर रहा था। इसका अर्थ यह भी हुआ कि वह किसी तरह के किसी फल की कामना भी नहीं कर रहा था। उसने मृग परिवार को समय एवं जीवन दान दिया जो कि शिव पूजन के समान है। शिव का अर्थ ही कल्याण होता है। उन निरीह प्राणियों का कल्याण करने के कारण ही वह शिव तत्व को जान पाया तथा उसका शिव से साक्षात्कार हुआ। इसी वजह से दया, कल्याण और परोपकार करने के लिए महाशिवरात्रि का दिवस होना भी आवश्यक नहीं है। इसी वजह से प्रत्येक मनुष्य को प्रति क्षण मन में इन भावों को रखकर कर्मशील रहना चाहिए।

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