परिवर्तन के साथ स्वयं में नई सम्भावना खोजें ।

 वर्क फ्रोम होम चल रहा है, सुबह साढ़े नौ बजे लोग इन करते हैं और शाम को साढ़े छह सात बजे तक काम करते हैं और उसके बाद फ्री हो जाते हैं। व्यापारिक जीवन में चल रहे हैं, सब कुछ सामान्य होने की जा रहा है, कामकाज वैसे ही चल रहा है, स्टाफ अच्छे से काम कर रहा है, हम भी अपने खर्चों को निकालने की ओर जाते हैं, ब्रेक इवन पाइंट से आगे जाकर हम मुनाफा कमाने की ओर जा पाते हैं वो सब कुछ जीवन में देख रहे हैं। ऑफिस पुन: शुरू हो चुके हैं तो नौ बजे निकलना होता है और रात को आठ बजे तक घर आ जाते हैं। सोचा बहुत कुछ था नया, किन्तु अब उसको पुन: करने की हिम्मत अपने भीतर से हम गंवा बैठे हैं। उसी रुटिन के अंदर आ चुके हैं। जो चल रहा था, वैसा ही चल रहा है। 

जब भी ये पंक्ति महीनों तक और वर्षों तक साथ में चल रही होती है तो वो एक खतरनाक आधार को जन्म देने वाली होती है। तथाकथित तौर पर व्यक्ति एक ऐसे कन्फर्ट जोन में आने लगता है जहां से वो कुछ नया करने की हिम्मत पूरे तरीके से खो बैठता है। जो चल रहा है बस वैसे ही चल रहा है। रिटायरमेंट के लिए फंड जोडऩा है तो उसी पोजीशन रह रखी है। घूमेंगे फिरेंगे उसके लिए भी सेविंग की ओर जा रहे हैं। ये सारी प्रवृतियां साथ में है, किन्तु मैं कुछ नया सीखने का स्तर और आधार साथ में जाग्रत नहीं है और न ही कुछ ऐसी टास्क है जो खुद को चैलेंज दे पाएं। ऐसी प्रवृतियां आती है किन्तु हम कामकाज में इतने आदी हो चुके हैं कि उसको सुलझा भी देते हैं और पुन: उसी रोटेशन में आ जाते हैं। 

जब तक व्यक्ति अपने कामकाज के अंदर बौद्धिक क्षमताओं का उपयोग ऊपरी तौर पर नहीं करता है तो खुद को ऐसे लेवल पर पाता है जहां से चैलेेंज शून्य होते चले जाते हैं किन्तु जब भी प्रतिस्पर्धा की स्थितियां स्वयं के साथ नहीं जुड़ती और हम जैसे चल रहे हैं वैसे ही चलने की प्रक्रिया के अंदर आ जाते हैं यकीन मानिये अपने भीतर के जो एक तरह से पोंटेंशियल है उसको भी खत्म कर देते हैं। क्या कुछ नया किया जा सकता है उसको भी जीवन से दूर हटा देते हैं जब भी व्यक्ति कामकाजी जीवन की आस को देखता है उसके बाद भी उसके पास समय रहता है बहुत कुछ नया सीखने की ओर जा सकता है, मंथन की ओर जा सकता है। 

स्वयं को नई टास्क कामकाज में भी दे सकता है, या ये भी सोच सोकता है कि मैं चेंज की ओर जाऊंगा और परिवर्तन के साथ खुद को नई संभावनाओं के साथ जोडऩे वाला रहूंगा। जब भी स्वयं को ऐसी स्थितियों के साथ संकुचित करेंगे यकीन मानिये जो भीतर बड़ा आधार हमेशा मौजूद रहता है उसको गौण करते चले जाएंगे। जब भी कोई व्यक्ति विशेष कामकाज, घर-परिवार की स्थितियां या सामाजिक तानेबाने हमको कोई चैलेंज नहीं दे रहे हों वहीं पर व्यक्ति को स्वयं रुककर खड़ा होना चाहिए कि और खुद को कहना चाहिए मैं स्वयं को चैलेंज देने जा रहा हूं, वहीं से जीवन का दर्शन बदलने लगता है।

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