संशय(Doubt) की स्थिति नहीं रखे मन में ।

 धर्म क्षेत्रे कुरु क्षेत्रे समवेता युयुत्षव मामका पांडवाश्चैव किम कुरुयते संजय। श्रीमद भगवत गीता के प्रथम अध्याय का प्रथम श्लोक जहां से राजा के संशय के साथ में इस महाग्रंथ की शुरुआत होती है। उन्हीं के सारथी के द्वारा इस श्रीमद भगवत गीता के पूर्ण विराम की स्थितियां भी आती है। जहां संजय कहते हैं कि जत्र योगेश्वरा कृष्ण तत्र पार्थो ततवो धनुर्धर। श्रीमद भगवत गीता तीन आधार स्तंभों के साथ चलती है। कर्म योग, ज्ञान योग और भक्ति योग। प्रथम अध्याय में अर्जुन अपने सारे ही संशय श्रीकृष्ण के सामने रखते हैं। गांडीव एक तरफ रखकर बैठ जाते हैं और कहते हैं कि ये सारे ही संशय मन में है। इस वजह से मैं युद्ध नहीं लड़ सकता। जब भी हम भी अपने कर्म क्षेत्र की ओर होते हैं, कई संशय होते हैं, कई भय रूपी जिज्ञासाएं साथ चल रही होती है, किन्तु धीरे-धीरे उस कर्म क्षेत्र के साथ चलने पर उलझने हटने लगती है। वहीं से कर्म का ज्ञान आने लगता है। वहीं से शुरुआत होती है ज्ञान योग की। ज्ञान योग के साथ में चलती स्थितियां बताती है कि इस कर्म के मायने क्या है। हम कर्म क्यों करना है। ज्ञान चक्षु उस कर्म के अंदर और अच्छे से व्यक्ति उद्दत करते हुए प्रतीत होते हैं। जहां पर अर्जुन भी शुरुआत में सारे ही संशय रखते हैं और हार मान चुके होते हैं। धीरे-धीरे ज्ञान योग की ओर जाते हुए यह बदलाव आता है। संशय कम होने लगते हैं। जिज्ञासाएं बढ़ती है, जहां भक्ति योग की चर्चा है वहां पर तर्क नहीं है। वहां उस परम सत्ता के आलौकिक स्वरूप के साथ में जुडऩे की चेतना है। 

जब भी व्यक्ति अपने तकर को एक तरफ रख देता है जो सारे ही मोह अपने साथ में चल रहे हैं उनको एक तरफ कर देता है तो वहीं से जीवन के जागृति की शुरुआत होती है। संशय कर्म की शुरुआत में रहेंगे। जैसे-जैसे ज्ञान पनपेगा कर्म उसके साथ और गहरे से जुड़ता चला जाएगा। जब कर्म और ज्ञान अपनी यात्रा को आगे बढ़ाते हैं तो वहीं से तर्करहित होकर व्यक्ति श्रद्धा और भक्ति से युक्त होकर आगे बढ़ता है। वहीं पर परम चेतना का स्तर है। ये भी जान पाता है कि कर्म के साथ में चल रहा हूं तो यहीं से मेरी आध्यात्मिक उन्नति, भौतिक प्रगति और परम सत्ता के साथ में जुड़कर इस जीवन को पूर्णता देनी है, वो सब कुछ हासिल होती चली जाएगी। गणनाएं पूरे जीवन के साथ चलती है और साथ में संशय की यात्रा भी एक तरफ चलती चली जाती है। 

जब गणनाओं और संशय से ऊपर उठकर व्यक्ति खुद को एक नव चैतन्य की ओर लेकर जाता है, वहीं से भक्ति योग और यूं समझ लीजिये श्रद्धा के साथ यात्रा शुरु होती है। ऐसी यात्रा की ओर जाता है वहां से उसको अपने कर्म के अंदर एक अलग लौ, एक अलग चेतन्य नजर आने लगता है। हम सब प्रयास करें कि जब भी कर्म की ओर जाएंगे तो उस क्षेत्र के साथ संशय रहेंगे, धीरे-धीरे उसे पहचानने का प्रयास करें। कर्म को पहचान चुके हैं और भक्ति योग की स्थितियों को साथ में रखे। वहीं अपने ईश्वर की तलाश करते रहें, यात्रा सुखमयी और आनंदमयी होती चली जाती है।

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