क्या पूजा पाठ ही हैं आध्यात्मिकता

जी मैं, भरपुर आध्यात्मिक हूं हर रोज पूजा पाठ करता हूं, नित्य नियम कभी नहीं छोड़ता और साथ में ही मंत्र जाप जो हर सप्ताह के जो वार निर्धारित हैं उनके साथ निरन्तर दोहराता हूं। क्या हम आध्यात्मिकता की परिभाषा को कहीं ओर तो नहीं लेकर चले गए हैं, हम अगर अपनी स्मृतियों के संसार में जाएं तो ये पाते हैं कि पूजा, पाठ और ध्यान ये हमारे नित्य नियम के आधार रहे हैं, अब यहां गौर किजिए कि ध्यान पूजा पाठ की स्थितियों के बाद दोहराई जाने वाली एक महत्वपूर्ण पद्धति हैं जब ध्यान की ओर जाते हैं तो तल्लीन होते हैं और उसके साथ में ही भीतर तक उतरने लगते हैं। अगर श्वांसों पर ध्यान गया तो प्राणायाम हो गया (साधारण भाषा में जब प्राणों को श्वासों के माध्यम से नए आयाम मिले वो प्राणायाम के सिरे हैं) जब किसी पुस्तक पर ध्यान गया और वहां एकाग्र हुए तो वहां पर भी शब्दों के साथ बह कर गहरे तक जाकर कुछ नया हासिल किया वो भी ध्यान हो गया। 
संगीत हो, खेल हो, कला हो और आधुनिक युग में आप भले ही तकनीक और प्रबंधन से जुड़ें हो जहां एकाग्र हुए वहां भीतर उतरे और जहां भीतर उतरे वहां ध्यान केन्द्रित हुआ और वहीं सिरे आध्यात्मिकता की ओर प्रस्फुटित होते हैं। जब भी ही हम मंत्रोचार के साथ मन को शुद्ध करके परम तत्व की ओर जाने और जुड़ने का प्रयास करते हैं तो इस विधि के बाद ध्यान झील सी शांति लिये हुए सामने होता हैं। मन के अन्दर नव स्पंदन उतरता हैं तो वहां हम आध्यात्मिकता को प्राप्त करते हैं। हर विधि को प्राप्त करने का संधान ध्यान हैं और ज्योतिषिय माध्यम से अगर मैं बात कंरू तो जहां बृहस्पति ने जीवन में ज्ञान के सूर्य को उदित किया तो आत्मा नई चमक प्राप्त करती हैं। 
तो हम जब भी तृप्त होना चाहे, आनंदित होना चाहे, हमारे द्वारा जबरदस्ती आज के इस क्षण में संभावनाओं को महत्वकांक्षाओं को जोड़कर चलने से बचें। 
भाग्य, आध्यात्म, भूतकाल, अनुभव और उच्च शिक्षा इनमें भाग्य को एक तरफ कर दिया जाये तो बाकी सारी ही स्थितियां उच्चत्व के साथ जुड़ी हैं और इस कड़ी में आध्यात्म भौतिकता से परे मन, शरीर और आत्मा में विभेद करके गतिमान होने की ताकत देने का माध्यम मात्र हैं।

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